सूंघने का काम कैसे करती है नाक? नाक अलग अलग गंध में फर्क कैसे करती है ?
सूंघने का काम कैसे करती है नाक? Nose function in hindi -अक्सर देखते हैं कि किसी-किसी की नाक बड़ी तेज होती है, हल्की सी गंध भी सूंघ लेती है, किसी अन्य की नाक को तो सब्जी के जलने की गंध भी नहीं आती है। सहज ही यह जिज्ञासा मन में उठती है कि नाक में यह फर्क क्यों है?
आखिर ऐसा नाक में क्या है जो हमें विभिन्न गंधों का ज्ञान कराता है? नाक हमारी पांच ज्ञानेंद्रियों में से एक है। हम सूंघ कर इतनी सारी बातों का पता लगाते रहते है कि हमें इस बात का भान भी तभी हो सकत है जब हमारी नाक खराब हो जाए यानि घ्राणेन्द्रियां नष्ट हो जाए। जैसे कि कभी जुकाम के दौरान थोड़े समय के लिये यह अनुभव होता है।
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सब्जी के छौंक,लजीज पुलाव की महक, अपने मनपसंद स्प्रे की खुशबू, फल-फूलो की सुगंध, पहली-पहली बरखा के बाद मिट्टी की सोधी गंध और भी न जाने क्या-क्या, नालियों की दुर्गध, किसी फैक्टरी के पास से निकलने पर रसायनों की असहनीय गंध, ये सब हम अपनी नाक के बूते पर ही पहचान पाते हैं।
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नाक अलग अलग गंध में फर्क कैसे करती है ? Nose function in Hindi
हम यह प्रश्न लेकर चले थे कि नाक इन सबमें फर्क कैसे करती हैं? दरअसल यह प्रश्न इसकी पूरी प्रक्रिया अभी वैज्ञानिक सुलझा नहीं पाये है। फिर भी जितनी जानकारी उपलब्ध है उनपर एक नज़र डालते हैं। हमारे नथुने जिस गुहा में खुलते हैं उसकी भीतरी दीवार पर असंख्य गंध संवेदनशील कोशिकाएं होती हैं। ये ऑलफैक्ट्री कोशिकाएं कहलाती हैं।

इनसे नाक की गुहा में संवेदनशील बाल या रोम निकले रहते हैं जो सिलिया कहलाते हैं। साधारणतः ऐसे सिलिया की संख्या 6-12 होती है। ये संवेदनशील कोशिकाएं तंत्रिका के द्वारा मस्तिष्क के आलफैक्ट्री बल्क से जुड़ी रहती हैं। इस बल्ब के आकार पर ही किसी प्राणि की घ्राण क्षमता का निर्धारण होता है। उदाहरण के लिये कुत्ते, जिनमें विलक्षण घ्राण क्षमता पायी जाती है, का आलफैक्ट्री बल्ब मनुष्य व अन्य प्राणियों से बड़ा होता है।
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नाक के अंदर मौजूद सिलिया एक तरल म्यूकस से हमेशा ढके रहते हैं। इस म्यूकस को स्रावित करने के लिये वहां विशेष कोशिकाएं होती हैं। कुत्तों में नाक की भीतरी सतह पर हमसे ज्यादा म्यूकस ग्रंथियां पायी जाती हैं।
नाक से हम कैसे सूंघते हैं ?
अब सूंघने की प्रक्रिया को देखते हैं। हमारी नाक क्या सूंघ पायेगी, यह कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। एक तो पदार्थ का वाष्पशील होना जरूरी है ताकि हवा के रास्ते हमारी नाक तक पहुंचे। यही कारण है कि अवाष्पशील होने से अनेक वस्तुओं की गंध हमें पता नहीं चलती, जैसे धातुएं या प्लास्टिक और हम इन्हें गंधहीन करार देते हैं।
दूसरी बात यह है कि यह वाष्पशील पदार्थ पानी के साथ-साथ वसा अम्लों में भी घुलनशील होना चाहिये। चूंकि म्यूकस जलीय होता है इसलिये म्यूकस के पानी में घुलकर ही पदार्थ सिलिया तक पहुंच पायेगा। सिलिया तक पहुंचने के बाद इसे वसा अम्लों में घुलना जरूरी है क्योंकि सिलिया की झिल्ली पर मौजूद प्रोटीन इन घुलनशील पदार्थों के साथ बंध बनाता है, तभी प्रक्रिया आगे जारी रह सकती है। प्रोटीन के साथ बंध बन जाने के बाद सिलिया उत्तेजित हो जाती हैं।
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सूंघने का वैज्ञानिक कारण Scientific nose function in Hindi
सिलिया की झिल्ली पर बाहर की ओर धन आवेशित सोडियम आयन उपस्थित होते हैं और सामान्य अवस्था में झिल्ली इन आयनों के लिये अपरागम्य होती है लेकिन प्रोटीन बंध बन जाने के बाद झिल्ली इनमें से कुछ आयनों को भीतर घुसने देती है। अतः संतुलन बनाये रखने के लिये भीतरी सतह से पोटेशियम आयन बाहर निकल आते हैं। इस तरह भीतरी सतह ऋण आवेशित बनी रहती है।
सोडियम आयन के भीतर व पोटेशियम आयन के बाहर जाने पर झिल्ली का नियंत्रण बना रहता है। झिल्ली के दोनों ओर एक निश्चित सांद्रता बनाए रखने के लिये पम्पनुमा व्यवस्था को सोडियम-पोटेशियम पंप कहा जाता है। यह क्रिया ‘एक्शन पोटेंशियल’ कहलाती है। इस क्रिया से झिल्ली के प्रतिरोध में बदलाव आता है और बदलाव की यह प्रक्रिया रिले रेस की तरह आगे मस्तिष्क तक पहुंचती है यानि गंध का संदेश मस्तिष्क के ऑलफैक्ट्री बल्ब तक पहुंचा दिया जाता है।
सूंघने का काम कैसे करती है नाक ? Nose function in Hindi

अभी प्रश्न का हल नहीं हुआ है। आखिर सिलिया पर विभिन्न गंधों की पहचान कैसे होती है, इस बारे में अभी भी परिकल्पनाएं ही हैं, कोई भी सर्वमान्य मान्यता विकसित नहीं हुई है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार पदार्थ के अणुओं के आकार एवं आकृति से उसको पहचाना जाता है, जैसे कपूर के अणु गोलाकार व 0.7 नेनोमीटर आकार के होते हैं।
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एक अन्य परिकल्पना के अनुसार विभिन्न पदार्थों के अणुओं के बीच स्थित बंधों की आवृत्ति भिन्न होने से कम्पन भी भिन्न होते हैं जिससे गंधों की पहचान होती है। कुछ और भी विश्लेषण दिये गये हैं लेकिन कोई भी परिकल्पना कुछ समय तक ही स्वीकृत रही। अगली शोधों के बाद उसे अस्वीकृत कर दिया गया। अभी भी विभिन्न वैज्ञानिक इस बारे में खोज में जुटे हैं।
नाक का महत्व हमें रोजमर्रा के जीवन में तो पता नहीं चलता लेकिन अनेक व्यवसाय तो केवल नाक की क्षमता पर ही टिके हुए हैं। जैसे चाय, कॉफी, शराब आदि क्योंकि इन वस्तुओं की ब्रांड में खुशबू का बहुत महत्व है।
साभार – लखन रविदास ( विज्ञान प्रगति )
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